स्वतंत्रता जो प्रत्येक प्राणी
मात्र का प्राकृतिक अधिकार है,
और मानव के लिए उतना ही आवश्यक
है जितना कोयल के लिए मधुर ध्वनि। जैसे व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतंत्रता अति
आवश्यक है, ठीक वैसे मनुष्यता-विकास के लिए मनुष्यों का सार्वभौमिक स्वतंत्र
होना अत्यंत आवश्यक है। सार्वभौमिक स्वतंत्रा से आशय मात्र इतना है कि “एक मनुष्य दूसरे
मनुष्य से लिंग विशेष,भाषा, स्वरूप का होने के नाते प्रतिबंधित न किया करे, कोई भी मनुष्य अपने इक्छा और सामर्थ के अनुरूप अपने विशिष्टता
को प्राप्त कर सके और ऐसा करने हेतु उसे किसी
के द्वारा प्रतिबंधित न किया जाए”। पुरुषवादी समाज ने महिलाओं के साथ सदैव द्वितीयक
व्यवहार किया तथा उनके शरीर पर नियंत्रण के साथ ही महिलाओं के मन को भी स्क्छंद नहीं
रहने दिया। आज हमने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कुछ तरक्की करके यह मान लिया है कि
हम विकसित समाज हो गए हैं,
वास्तव में महिला के सर्वांगीण
विकास बिना अब तक का विकास अपूर्ण है
अंतरराष्ट्रिय महिला दिवस पर महिला
विकास और प्राप्त होने वाले अवसरो पर पुनः मंथन अत्यंत आवश्यक है। और ये प्रश्नीय
है कि क्या कागजों और क़ानूनों में वर्णित सारे अधिकार महिलाओं को सहजतता से प्राप्त
हैं ? यदि है भी तो कितने प्रतिशत महिलाओं
को ? इससे भी अहम प्रश्न यह है कि उनके
लिए विशेष कानून या विशेष अधिकार देने कि आवश्यता ही क्यों पड़ी ? तो अहमतः हमें पुरुष समाज ही दोषी दिखेगा जो विचारणीय है। जॉन स्टुआर्ट मिल कहते हैं कि “स्त्रीयों की पराधीनता ऐसी विश्वजनीन प्रथा बन गई है कि जब कहीं
स्त्री के वर्चस्व का कोई संकेत मिलता है तो वह अस्वाभाविक प्रतीत होता है।
स्वतंत्रता हेतु मौलिक अधिकारों
की कानूनी रूप से प्राप्ति होते हुए भी समाज का आधा भाग हमेसा से द्वयम दर्जे का ही अधिकारी
रहा है चाहे वो प्राचीन काल हो या आज की 21 वीं शदी। न सिर्फ भारत बल्कि दुनियां के
हर हिस्से में यह अपराध हो रहा है । कई शताब्दी बाद भी अरस्तू का महिलाओं को संपत्ति मानना,स्त्री दास है और वह पुरुषों
के अधीन रहे, यह विचार
आज भी जीवंत देखने को मिलता है। मध्य एसिया में आज भी महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार
हो रहा है ये सब जानते हैं वहाँ आज भी पति के इजाजत के बिना कोई भी स्त्री घर के बाहर
नहीं जा सकती अधिकार तो दूर की बात है। आज भी हमारे देश में यह सोच जिंदा है कि ‘बेटियों को दूसरे के घर जाना है वो दूसरे की अमानता हैं’अब एक बात समझ में नहीं आती कि
एक ही माता-पिता के दो संतानों में एक उनका अपना दूसरी पराई कैसे हो गई। इस तरह की
सोच बच्चियों के मन में आरंभ से ही अनेक कुन्ठाओं को जन्म देता है। उत्तर आधुनिक
युग होने के बाद भी आज स्त्री कुटुंब से लेकर बाजार तक कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं यही
हमारे समाज की उपलब्धि है। जीवन से जुड़े प्रत्येक स्थान पर उनके साथ भेद- भाव किया
जाता है चाहे वो माँ-बाप का घर हो या विद्यालय या दफ्तर हो या फिर शादी के बाद पति
का घर। आज भी महिलाओं को सिर्फ संवैधानिक समानता प्राप्त हुई है सामाजिक और धार्मिक
नहीं। समाज में महिलाओं के मानवअधिकारों का हनन सिर्फ हिंसा के माध्यम से ही नहीं किया
जाता वरन मानसिक प्रताड़ना और भेदभाव के माध्यम से भी उनके साथ हिंसा होता रहता है।
महिलाओं के साथ भेदभाव पर जब वे प्रतिरोध करती
हैं तो उनको समझा दिया जाता है कि ऐसा इसलिए है कि तुम लड़की हो और वो लड़का है, ‘तुम स्त्री हो इसलिए चुप रहो’ धीरे-धीरे यह प्रतिरोध दबा दिया
जाता है और स्त्री उसे ही अपनी किस्मत मान लेती हैं । एक मनुष्य से स्त्री बनने का
सफर यातना, दमन, भेदभाव,
शोषण, परतंत्रता,
हिंसा से भरा होता है ।
‘महिलाएं पैदा नहीं होतीं हैं, बल्कि बनाई जाती है’ साइमन द बुआ ने सेकेंड सेक्स
पुस्तक से जनमानस में क्रांतिक विचार पैदा करते हैं। स्तर दर स्तर महिलाएं सामाजिक हिंसाओं से घिरी हुई हैं चाहे वो निजी जीवन हो या सामाजिक, अंतर बस इतना है कि निजी जीवन से जुड़ीं समस्याएँ लोग देख नहीं
पाते, क्योंकि चेहरे पर झूठी मुस्कान
रखना महिलाओं की मजबूरी बन गई है। महिलाओं के साथ होने वाले हिंसा में न सिर्फ पुरुष
बल्कि महिलाओं का भी उतना ही योगदान रहता है जिसमे सौतेली माँ, सास,
जेठानी और ननद जैसे किरदार अहम
रोल रखते हैं। इसके बाद सौतेला पिता, पति और ससुर का नंबर आता है ये सब घरेलू हिंसा के स्वरूप हैं।
“अहमदाबाद की आयशा” इन यतनाओं की
ज्वलंत उदाहरण है। क्यों आयशा घर में पिटे, क्यों आयशा माइके से पैसे लाकर दे, क्यों आयशा पति के पास रहने के लिए मिन्नते करे, क्यों आयशा आत्महत्या करे, क्यों आयशा अपने अंत का प्रमाण दे और क्यों आयशा ही चरित्रहीन
बनाई जाए, इन सब का जिम्मेदार कौन है ?
यद्यपि की भारतीय महिलाओं को सुरक्षा
प्रदान करने और उनके लिए स्वास्थ्य वातावरण के निर्माण के लिए तमाम कानून बनाए गए हैं
उनमें मानव तस्करी अधिनियम 1956,
दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुंब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट रूपण प्रतिषेध अधिनियम, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, कार्य स्थल पर महिलाओं के साथ लैंगिक उत्पीड़न प्रतिषेध अधिनियम
आदि प्रमुख हैं। इसके बाद भी भारत में हर दिन
महिलाओं के साथ हिंसा होता रहता है ।समाज में कुछ महिलाओं के आगे बढ़ने से पूरा महिला
समाज आगे नहीं बढ़ जाता,
समूचे मानव समाज की यह ज़िम्मेदारी
है कि वे महिलाओं को सम्पूर्ण विकास करने और
पूर्ण क्षमता का उपयोग कर सकने के काबिल बनने में उनकी मदत करे। स्त्री सशक्तिकरण
के लिए नए सिरे से समूचे संसार में एक आंदोलन की आवश्यकता है, ताकि महिला अपने स्वतंत्र मन से दुनियां को अपने रचनात्मक कार्य, ज्ञान, शक्ति,
संघर्ष और सृजनात्मकता से
सिंचित करें । विषम परिस्थितियों के उपरांत महिलाएं आज सेना से लेकर चांद तारों तक
का सफर तय कर रही हैं । आज भी महिलाओं के समक्ष शिक्षा, स्वास्थ्य,
सुरक्षा, समानता,
स्वतंत्रता जैसे परंपरागत चुनौतियाँ
हैं। इसके साथ ही इस युग में महिलाओं की प्रमुख
समस्या-महिला स्मिता और सामाजिक संघर्ष की है। सामाजिक समानता हो अथवा धार्मिक समानता
सभी स्थानों पर महिलाओं को समानता की आवश्यकता है। महिला मन स्वतंत्र रहेगा तो विश्व
नए उचाइयों को प्राप्त कर सकेगा।
लेखक परिचय :
1. अम्बुज शुक्ल (शोधार्थी), म. गा. अ. हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
2. स्तुति धर (लेखक), म. गा. अ. हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
3. डॉ. अरुण कुमार (युवा वैज्ञानिक), म. गा. अ. हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
Wow nice article very knowledgeable
ReplyDeletethank you for appreciation
Deletethank you for your contribution
ReplyDeleteNice article... 👍
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